23 जनवरी 2019, नयी दिल्ली
दक्षिण एशिया में उपेक्षित बीमारियों के उन्मूलन के लिए नवीनता/ नए प्रयोग महत्वपूर्ण हैं |
ड्रग्स फ़ॉर नेग्लेक्टेड डिज़ीज़ेज़ इनिशिएटिव (डीएनडीआई) ने बीएमजे (ब्रिटिश मेडिकल जर्नल) के सहयोग से ‘नेग्लेक्टेड डिज़ीज़ेज़ एंड इनोवेशन इन साउथ एशिया’ नाम का एक ख़ास संकलन प्रकाशित किया है | संकलन में दक्षिण एशिया व दुनिया भर के लगभग 30 लेखकों ने इस क्षेत्र में उपेक्षित मरीजों का स्वास्थ्य सुधारने के लिए शोध की प्राथमिकताओं के साथ ही कार्रवाई के लिए सिफारिशों की पहचान भी की है |
यह संकलन क्षेत्र में लिम्फेटिक फाइलेरियासिस, काला अज़ार और सर्प दंश जैसी उपेक्षित बीमारियों के उन्मूलन की प्रगति बताता है व एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध की बढ़ती चुनौती को प्रमुखता से रेखांकित भी करता है |
स्वास्थ्य शोध विभाग के सचिव व आईसीएमआर के महानिदेशक प्रोफ़ेसर बलराम भार्गव ने कहा, “इन बीमारियों का अधिक भार होने व समाधान लाने के लिए क्षेत्रीय विशेषज्ञता देखते हुए जिसमें विनियम, निर्माण व वितरण के ज़रिये दवा की खोज से लेकर चिकित्सकीय शिक्षा शामिल है, जैसे कारणों के चलते इन बीमारियों का क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबला करने में दक्षिण एशिया व ख़ासतौर से भारत की एक अनूठी भूमिका है |
इस विषय पर बोलते हुए प्रोफेसर भार्गव ने आगे कहा, “संकलन का एकीकृत विषय निदान, इलाज व उपेक्षित बीमारियों से बचाव में नवीनता है जिससे ऐसे समाधान बनाए जा सकें जो असरदार, प्रासंगिक, क्षेत्रीय रूप से मौजूद व सतत हैं|”
बीएमजे की चिकित्सकीय सम्पादक, डॉ अनीता जैन के अनुसार, “बीएमजे दक्षिण एशिया के लोगों को प्रभावित करने वाले प्रमुख स्वास्थ्य मुद्दों पर बातचीत और कार्रवाई को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है। उपेक्षित बीमारियाँ ग़रीब, हाशिये के लोगों व ग्रामीण जनता पर विषमतापूर्वक प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं | हमें उम्मीद है कि सरकारें और सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थान व इकाइयां इस संग्रह में प्रस्तावित समाधानों और अगले कदमों पर विचार करेंगी ।“
भारत में डीएनडीआई प्रमुख डॉ सुमन रिजiल ने कहा, “यह संकलन दक्षिण एशिया में उपेक्षित बीमारियों पर चल रहे सार्वजनिक स्वास्थ्य के कार्यक्रमों की सफलता को प्रमुखता से दिखाता है व उन क्षेत्रों की पहचान करता है जहाँ नियंत्रण व उन्मूलन की योजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए शोध व सहायक नीति की ज़रुरत है |”
उदाहरण के लिए भारत में डीएनडीआई द्वारा किये गए एक शोध के अनुसार त्वचा की एक ख़ास स्थिति, पोस्ट काला अज़ार डर्मल लेशमेनियासिस जो कि 10% ऐसे मरीजों में होती है जिनका विसरल (आँतों की) लेशमेनियासिस का उपचार हो चुका है | ये स्थिति इस बीमारी के फैलने में कोश के सामान एक प्रमुख भूमिका निभा सकती है | ऐसे मरीजों के लिए नए व संशोधित उपचारों की ज़रुरत है | इसके साथ ही विसरल लेशमेनियासिस के लिए मुंह से दवा लेने वाले लोगों का पहली बार एक समृद्ध पोर्टफोलियो बना है जिसके ज़रिये एक दशक के भीतर एक नयी थेरेपी अथवा पद्धति मिल सकती है |
कार्यक्रम में एक पैनल चर्चा भी आयोजित की गयी व संग्रह के सभी भागों में से एक प्रमुख लेखक ने चर्चा में प्रतिभागिता करते हुए मुख्य समस्या व हर बीमारी के प्राथमिकता वाले हिस्से को रेखांकित किया |
संकलन के लेखकों की उल्लेखनीय सिफारिशें:
- लिम्फेटिक फाइलेरियासिस: 63% लोगों को लिम्फेटिक फाइलेरियासिस का ख़तरा रहता है और दुनिया भर के 50% संक्रमित लोग दक्षिण पूर्वी एशिया में रहते हैं | दुनिया भर में इस बीमारी के कुल भार का 40% अकेले भारत में ही है | माइक्रोफ़ाइलेरीसिडल दवाओं की बड़े स्तर पर निगरानी ने नए संक्रमणों को कम किया है | श्रीलंका और मालदीव ने बड़े पैमाने पर दवा प्रशासन और रोग की मजबूत निगरानी के संयुक्त दृष्टिकोण के ज़रिये से लिम्फेटिक फाइलेरिया को सफलतापूर्वक मिटा दिया है | नयी दवाइयां व तरीके जो व्यस्क कीड़ों को मार देते हैं (उदाहरण. ट्रिपल थेरेपी) व लिम्फोइडिमा को बढ़ाते हैं वे लिम्फेटिक फ़ाइलेरियासिस के उन्मूलन के प्रयासों में तेज़ी लाने में मदद कर सकते हैं |
- भारत, बांग्लादेश व नेपाल में काला अज़ार उन्मूलन कार्यक्रम ने इस बीमारी को कम करने में अच्छी प्रगति की है | पोस्ट काला अज़ार डर्मल लेशमेनियासिस की बढ़ती हुई घटनाएं और एचआईवी लेशमेनिया के संयुक्त संक्रमण का फैलना जारी है जिससे नयी घटनाओं का खतरा बना हुआ है | उन्मूलन में प्रगति के लिए ये आवश्यक है कि नयी दवाओं और निदान को विकसित करने के साथ साथ रोगवाहक (वेक्टर) नियंत्रण और निगरानी की रणनीतियों में नवीनता लाने के लिए निवेश किया जाए |
- विश्व में सर्पदंश द्वारा विषाक्त होने की सर्वाधिक घटनाएं दक्षिण एशिया में होती हैं | विश्व में ऐसी कुल मौतों में से 70% दक्षिण एशिया में होती हैं | अपर्याप्त प्राथमिक चिकित्सा, उपचार पहुँचने में देरी और उत्तम उपचार न मिलने से बुरे नतीजे सामने आते हैं | सर्पदंश को वैश्विक स्तर पर एक उपेक्षित ट्रॉपिकल (उष्णकटिबंधीय) बीमारी के तौर देखे जाने से दक्षिण एशियाई देशों को महामारी विज्ञान, उपचार और रोकथाम पर अनुसंधान के लिए क्षेत्रीय सहयोग और निवेश को मजबूत करने के का एक मौका मिलता है |
- सतत रोगाणुरोधी (एंटीमाइक्रोबियल) प्रतिरोध के कारण उपचार में विफलताएं हुई हैं और दक्षिण एशिया में टाइफाइड बुखार के उपचार के विकल्प सीमित हुए हैं | 2018 में स्वीकृत हुए एक संयुग्म टीके को दक्षिण एशिया में टाइफाइड को नियंत्रित करने के एक अहम साधन के तौर पर देखा जा सकता है | शोध और जल्दी नतीजे बताने वाले नैदानिक परीक्षणों के साथ साथ नए उपचारों पर निवेश को प्राथमिकता देनी चाहिए |
- दक्षिण एशिया में नवजात बच्चों में सेप्सिस (घाव का सड़ना) विकसित देशों की तुलना में 4 से 10 गुना अधिक है | ऐसे उच्च आय वाले देशों के विपरीत जहाँ समूह बी स्ट्रेप्टोकोकी की प्रबलता होती है, ग्राम नेगेटिव जीव प्रबल होते हैं जो संभवतः पर्यावरण और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं से संक्रमण के फैलने का संकेत देते हैं | स्वास्थ्य इकाइयों से अलग हुए आम लोगों में लगभग 50-88% शुरुआत में दी जाने वाली एंटीबायोटिक्स – एम्पिसिलिन और जेंटामिसिन के प्रतिरोधी होते हैं | सरल, साक्ष्य-आधारित हस्तक्षेप जैसे बेहतर एसेपसिस, हाथ की स्वच्छता और पूरी तरह स्तनपान के साथ ही और रोगाणुरोधी प्रबंधन कार्यक्रमों की स्थापना इसमें मदद कर सकते हैं ।
- भारत को इस समय उपेक्षित बीमारियों पर एक व्यापक नीति बनाने की आवश्यकता है जिसके ज़रिये शोध व नवीनीकरण को सहयोग करने के लिए अधिक आर्थिक मदद व नवीनीकरण के रास्ते बन सकें | इस बात की अधिक संभावना है कि शोध व उन्मूलन की दिशा में हो रहे प्रयासों को शामिल करते हुए बनाए गए एक संयुक्त कार्यक्रम का स्वास्थ्य के एजेंडा व बीमारी उन्मूलन के प्रयासों को व्यवस्थित करते हुए प्राथमिकता पर लाने में अधिक प्रभाव पड़ेगा | सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल 3.3 उपेक्षित उष्णकटिबंधीय (ट्रॉपिकल) बीमारियों से जुड़ी महामारियों के 2030 तक उन्मूलन की बात करता है | यदि भारत को इसमें तय किये गए अपने लक्ष्य को पाना है तो ये ज़रूरी है कि शोध व नवीनीकरण के लिए एक सहायक व सकारात्मक माहौल बनाया जाए |
संकलन को नयी दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में डीएनडीआई की पंद्रहवीं वर्षगाँठ के अवसर पर जारी किया गया | इस अवसर पर स्वास्थ्य शोध विभाग के सचिव व आईसीएमआर के महानिदेशक प्रोफेसर बलराम भार्गव, डीबीटी सचिव डॉ रेनू स्वरुप और डीएसआईआर सचिव व डीजी – सीएसआईआर डॉ शेखर सी मानदे के अलावा बड़ी संख्या में शोधार्थी, वैज्ञानिक, नीति निर्धारक व उपेक्षित बीमारियों पर काम करने वाले राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि उपस्थित थे |
डीएनडीआई के बारे में
डीएनडीआई एक गैर लाभकारी, शोध व विकास (रिसर्च एंड डेवलपमेंट) आधारित संस्था है | डीएनडीआई, उपेक्षित बीमारियों ख़ासतौर से ह्यूमन अफ्रीकन ट्रायपैनोसोमियासिस, लेशमेनियासिस, चागाज़ डिजीज, फ़ाइलेरियल संक्रमण, मायसेटोमा, बच्चों में एचआईवी व हेपेटाइटिस सी के लिए नए उपचार देने का काम करती है | नेक्ट (NECT) डीएनडीआई द्वारा 2003 में इसकी स्थापना से अब तक में दिए गए सात उपचारों में से एक है | फेक्सिनीडाज़ोल, डीएनडीआई द्वारा सफलतापूर्वक विकसित की जाने वाली पहली नई रासायनिक इकाई है |
बीएमजे के बारे में
द बीएमजे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मेडिकल जर्नल है जिसे साक्ष्य आधारित मेडिसिन (दवा) व रोगी केन्द्रित स्वास्थ्य देखभाल के चैंपियन के तौर पर देखा जाता है | इनका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य के अहम मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित करना व उनके समाधानों की दिशा में चर्चा को प्रोत्साहित करना है | जर्नल का इम्पैक्ट फैक्टर 19.697 (जून 2016) है और ये सामान्य चिकित्सकीय जर्नलों की सूची में चौथे स्थान पर है | इसमें प्रकाशित लेख दुनिया भर में प्रतिदिन ख़बर बनते हैं व नियमित रूप से चिकित्सकीय दिशानिर्देशों में उद्धृत किये जाते हैं |
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